maalgadi kavitein..,
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कभी कभी
जब थक-हार जाता हूँ
जिन्दग़ी से जूझते,
अपनी सारी मायूसी
उतार के टाँग देता हूँ
कमरे की, ज़ंक लगी
खूँटी पर!
हुडदंग ही हो जाता है तब,
मैं और बस मेरी
बेपरवाह जिन्दग़ी!
मेरी मायूसी, जो टंगी है
मैली सिलवटे लिए
बहुत पुरानी लगती है
शायद बीती जिन्दग़ी के
घाव धुले ही नही कभी!
मायूसी ओढ लेना
अच्छा तो नही
पर जरूरी है
कही फिजूल के
घाव आकर चिपक जाये,
बेहतर है, अपनी ही जिन्दगी
सीने से चिपकाकर रो लेना!
जब फिर थक जाता हूँ
पागलपन से,
दुबारा पहन लेता हूँ
उसको
जिन्दग़ी अपने पुराने
ढर्रे पर
वापस लौट आती है!
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